Religion and Spirituality: इस दुनिया में जब भी कोई वसीयत (Will and Testament) लिखी जाती है या उसका जिक्र भी होता है, तो सबसे पहले हमारे जहन में धन-संपत्ति, जमीन-जायदाद और रुपयों-पैसों के बंटवारे की बात आती है। लेकिन कल्पना कीजिए, क्या दुनिया में कोई ऐसी भी वसीयत हो सकती है, जिसे लिखने वाले के पास एक रुपये की भी संपत्ति न हो? न कोई जमीन-जायदाद, न कोई बैंक बैलेंस, न कोठी, न बंगला, न खेत और न ही कोई अपना घर हो, और फिर भी उसने एक वसीयत लिखी हो। है न यह आश्चर्य की बात!
ऐसी ही एक अद्भुत और अविश्वसनीय वसीयत कुछ वर्ष पूर्व लिखी गई थी। एक ऐसी वसीयत, जिसकी 8 लाख से भी अधिक प्रतियां बिक गईं; एक ऐसी वसीयत, जिसे 40 बार से ज्यादा पुनर्मुद्रित करना पड़ा; और एक ऐसी वसीयत, जिसका दुनिया की बहुत सी भाषाओं में अनुवाद किया गया हो। शायद ही दुनिया में किसी व्यक्ति की इतनी दिव्य और अद्भुत वसीयत रही हो, जिसकी मूल प्रति को आज भी किसी संग्रहालय में सहेज कर रखा गया हो। सोच कर देखिए, वह व्यक्ति कितना विरला और असाधारण रहा होगा!
आखिर कौन था वह महापुरुष? और ऐसा भी क्या था उस वसीयत में, जिसके कारण वह दुनिया की सबसे दुर्लभ, अद्भुत और प्रेरणादायक वसीयत बन गई है? जी हां, वह थे इस कलयुग के असाधारण, अद्वितीय और अद्भुत संत, स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज (Swami Ramsukhdas Ji Maharaj)।
उनकी वसीयत के महज 7-8 बिंदु ही उनकी महान सोच, निर्मल, निर्विकार, और निस्वार्थ भावना को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। यह वसीयत दिखाती है कि वे पाखंड, मान-बड़ाई, जय-जयकार की लालसा से कितने दूर थे और केवल मानव मात्र के कल्याण की भावना रखते थे। इन बिंदुओं को पढ़ने मात्र से ही उनके पूरे व्यक्तित्व और उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई का परिचय मिल जाता है।
स्वामी रामसुखदास जी महाराज की अद्भुत वसीयत कुछ इस तरह थी:
- जय-जयकार का निषेध: जिस प्रकार जीवित अवस्था में मैंने दंडवत प्रणाम, चरण स्पर्श, जय-जयकार और माल्यार्पण को पूरी तरह से निषेध किया था, मेरे इस शरीर को त्यागने के पश्चात भी इन सभी चीजों का सख्ती से निषेध किया जाए।
- मेरे नाम पर कुछ नहीं: जिस प्रकार मेरे जीवित रहते हुए मेरे नाम से न तो कोई मठ है, न कोई आश्रम है, न ही मेरे नाम पर कोई पाठशाला, गौशाला आदि है, और न ही मेरे प्रवचनों के लिए कभी कोई चंदा आदि इकट्ठा किया गया, मेरे इस देह को त्यागने के पश्चात भी इस नियम का कठोरता से पालन किया जाए।
- न कोई शिष्य, न उत्तराधिकारी: न तो मेरा कोई शिष्य है, न ही कोई प्रचारक है, और न ही मेरा कोई उत्तराधिकारी था, और न ही कभी होगा।
- कोई भोज या उत्सव नहीं: मेरे इस देह को त्यागने के पश्चात मेरे निमित्त किसी भी तरह का कोई भोज (मृत्यु भोज) अथवा वार्षिक उत्सव (पुण्यतिथि) न किया जाए।
- सादगीपूर्ण अंतिम संस्कार: इस देह को त्यागने के पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई बैकुंठी, अर्थी आदि की व्यवस्था न की जाए। केवल एक झोली में ले जाकर इस देह की अंतिम क्रिया गंगा के समीप संपन्न कर दी जाए। यदि पास में गंगा न हो, तो जहां गायों का विचरण होता हो, वहां अंतिम संस्कार कर दिया जाए।
- तस्वीर खींचना मना है: मेरे इस देह की एवं उसके अंतिम संस्कार की कोई भी तस्वीर अथवा छायाचित्र (फोटो) न लिया जाए। यदि कोई ऐसा करने का प्रयास करे, तो उसे विनम्रतापूर्वक रोका जाए। (ज्ञात हो कि स्वामीजी ने अपने लगभग 102 वर्ष के पूरे जीवन काल में कभी भी अपनी फोटो नहीं खिंचने दी, क्योंकि उनका दृढ़ता से मानना था कि लोग समय के साथ भगवान के स्थान पर व्यक्ति की पूजा करने लगेंगे।)
- वस्तुओं का भी दाह संस्कार: मेरी सभी निजी सामग्रियां, जैसे कलम, कपड़े, खड़ाऊ, जूते, वस्त्र इत्यादि को चिता के समीप ही जला दिया जाए, ताकि भविष्य में कोई भी उन वस्तुओं की पूजा इत्यादि न कर पाए। जिस स्थान पर अंतिम संस्कार किया गया है, वहां कोई स्मारक, चबूतरा या किसी भी प्रकार का कोई चिन्ह इत्यादि न बनाया जाए। (उनका मानना था कि पूजा सिर्फ और सिर्फ भगवान की होनी चाहिए, मनुष्य की नहीं।)
- व्यावसायिक उपयोग का निषेध: किसी भी व्यावसायिक सामग्री जैसे दुकान, कैलेंडर आदि में, जहां विज्ञापन से धनोपार्जन किया जाता हो, वहां मैं अपना नाम तक छापने को निषेध करता हूँ।
स्वामी जी की यह हस्तलिखित वसीयत की प्रतिलिपि आनंदाश्रम, रानी बाज़ार, बीकानेर, राजस्थान में आज भी संरक्षित है। उनकी इस वसीयत को स्वामी जी के आदेश पर देहरादून के श्री राजेन्द्र कुमार जी धवन ने लिखा था और उस पर स्वयं स्वामी जी के हस्ताक्षर भी हैं। स्वामीजी की वसीयत पर साक्षी के तौर पर इन 5 प्रतिष्ठित व्यक्तियों के हस्ताक्षर भी हैं:
- सिंहस्थ पीठाधीश्वर श्री क्षमा राम जी महाराज, सींथल
- श्री नवलराम जी महाराज, आनंदाश्रम रानी बाजार, बीकानेर
- श्री बृज रतन जी डागा, भीनासर
- श्री रामनिवास जी महाराज, लाडनू
- श्री शिव किसन जी राठी, बीकानेर
मैंने अपने अल्प ज्ञान से जो कुछ भी इस महान संत के बारे में लिखा है, वह मेरे लिए एक सौभाग्य की बात है। अन्यथा मेरी बुद्धि और ज्ञान में इतना सामर्थ्य कहां कि मैं इतने महान संत पर कुछ लिख सकूं। इस दौर में, जहां अधिकांश संत मान-बड़ाई और प्रसिद्धि के लिए आतुर रहते हैं, जिनके बड़े-बड़े मठ और आश्रम हैं, वहां इस युग में ऐसे अद्भुत संत को मैंने न सिर्फ प्रत्यक्ष देखा है, सुना है, बल्कि उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने का सौभाग्य भी प्राप्त किया है। वह दिन मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय दिन था। यह कोई प्रभु की कृपा ही थी कि मैं उस दिन ऋषिकेश में उपस्थित था और स्वामीजी की जलती हुई चिता के दिव्य ताप ने मेरी देह को धन्य कर दिया।
आज के युग में, स्वामी रामसुखदास जी महाराज जैसे संत एक बड़े और गहरे शोध का विषय हैं। उनकी सादगी, निःस्वार्थता और आध्यात्मिक स्पष्टता आज के समाज के लिए एक महान प्रेरणा स्रोत है।