Supreme Court: भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) आज (7 जुलाई) उन याचिकाओं (Petitions) पर तत्काल सुनवाई के लिए सहमत हो गया, जिनमें भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India – ECI) के बिहार में मतदाता सूची (Electoral Rolls) के विशेष सघन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision) के निर्णय को चुनौती दी गई है। यह कदम भारत के लोकतंत्र (Indian Democracy) और नागरिकों के मतदान अधिकार (Voting Rights) से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले पर सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता को दर्शाता है। मतदाता सूची पुनरीक्षण (Voter List Revision) की प्रक्रिया हमेशा से राजनीतिक रूप से संवेदनशील रही है।
इस याचिका को वरिष्ठ अधिवक्ताओं (Senior Advocates) कपिल सिब्बल (Kapil Sibal), अभिषेक मनु सिंघवी (Abhishek Manu Singhvi), गोपाल शंकरनारायणन (Gopal Sankaranarayanan) और शदान फरासत (Shadan Farasat) ने प्रस्तुत किया है। याचिकाकर्ताओं में राष्ट्रीय जनता दल (Rashtriya Janata Dal – RJD) के सांसद मनोज झा (Manoj Jha), एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (Association for Democratic Reforms – ADR), पीयूसीएल (PUCL), कार्यकर्ता योगेंद्र यादव (Yogendra Yadav) और लोकसभा सांसद (Lok Sabha MP) महुआ मोइत्रा (Mahua Moitra) शामिल हैं। यह विभिन्न राजनीतिक और नागरिक समाज (Civil Society) के दिग्गजों द्वारा उठाया गया एक सामूहिक कदम है।
लाइवलॉ (LiveLaw) के अनुसार, जस्टिस सुधांशु धूलिया (Justice Sudhanshu Dhulia) और जस्टिस जोयमाल्य बागची (Justice Joymalya Bagchi) की पीठ ने यह दलील सुनी कि जो मतदाता निर्धारित दस्तावेजों (Specified Documents) के साथ फॉर्म जमा करने में विफल रहते हैं, उन्हें मतदाता सूची (Electoral Roll) से हटा दिया जाएगा, भले ही उन्होंने पिछले 20 सालों से चुनावों में मतदान (Voted in Elections) किया हो। वकीलों ने तर्क दिया कि इससे आठ करोड़ मतदाताओं में से चार करोड़ मतदाता प्रभावित (Exposed) हो सकते हैं। यह जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (Representation of People Act) के तहत एक बड़ा सवाल उठाता है।
वकीलों ने यह भी जोड़ा कि ईसीआई (ECI) के आधार (Aadhaar) या वोटर आईडी कार्ड (Voter ID Cards) को स्वीकार न करने के फैसले ने एक बहुत ही सख्त समय-सीमा (Strict Timeline) के भीतर इस कार्य को पूरा करना ‘असंभव’ बना दिया है। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) इस मामले पर 10 जुलाई को याचिकाओं (Petitions) पर सुनवाई करेगा। यह चुनावी प्रक्रिया (Electoral Process) में पारदर्शिता (Transparency) और निष्पक्षता (Fairness) सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण न्यायिक हस्तक्षेप (Judicial Intervention) है।
पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने उठाए सवाल: ‘नागरिकता जांच’ का मुद्दा!
एक दिन पहले, पूर्व चुनाव आयुक्त (Former Election Commissioner) अशोक लवासा (Ashok Lavasa) ने एक कॉलम (Column) में लिखा था कि घोषणा का समय, “नागरिकता जांच के उन्माद (Hysteria of Citizenship Checks) के बीच, विशेष रूप से कुछ राज्यों में राज्य और नगरपालिका स्तरों पर, जहां ‘शुद्धि’ (Purification) भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी और मतदाता विलोपन (Voter Deletion) के लिए इस्तेमाल की गई थी, ईसी (EC) के इरादों पर सवाल उठाता है, ऐसे में बड़ी संख्या में आबादी प्रभावित होगी।” यह चुनावी सुधारों (Electoral Reforms) पर गंभीर चिंताएं पैदा करता है।
लवासा (Lavasa) ने पूछा कि ईसीआई (ECI) 2003 की कट-ऑफ तारीख (Cut-off Date) को महत्व क्यों दे रहा है, जब बिहार में आखिरी बार रोल पुनरीक्षण (Roll Revisions in Bihar) हुआ था। उन्होंने तर्क दिया, “जिस बात ने संदेह को मजबूत किया है, वह उस आधार को समझने में कठिनाई है जिस पर ईसीआई केवल 2003 तक पंजीकृत लोगों की विश्वसनीयता को अधिक सबूत (Greater Evidentiary Value) दे रहा है। ईसीआई के निर्देशों के पैरा 11 में कहा गया है कि ‘ईआरओ (ERO) 2003 के ईआर (ER)… को पात्रता के पुष्टिकारी साक्ष्य (Probatived Evidence of Eligibility) के रूप में मानेगा, जिसमें नागरिकता की धारणा (Presumption of Citizenship) भी शामिल है’।” यह आधार अधिनियम (Aadhaar Act) और नागरिकता अधिनियम (Citizenship Act) के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि लवासा ने यह भी कहा कि क्या ईसी के पास एक ऐसे देश में लोगों को ऐसी परीक्षा में डालने का अधिकार क्षेत्र (Locus) है जहाँ कोई आधिकारिक नागरिकता दस्तावेज (Official Citizenship Document) जारी नहीं होता है:
“हंगामे का कारण यह तथ्य है कि ईसी (EC) अब तक दस्तावेजी साक्ष्य (Documentary Evidence) और भौतिक सत्यापन (Physical Verification) पर भी भरोसा कर रहा था ताकि ईआर में शामिल किया जा सके, जबकि अनुच्छेद 326 (Article 326) को बनाए रखा जा रहा था, लेकिन नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों (Provisions of the Citizenship Act) के अनुसार नागरिकता का कोई प्रमाण (Proof of Citizenship) आवश्यक नहीं था। इसलिए यह बहस योग्य है कि एक ऐसे देश में जहां सरकार द्वारा कोई नागरिकता दस्तावेज जारी नहीं किया जाता है, ईसीआई (ECI) ऐसे प्रावधान के साथ जाए जिससे नागरिकों के मतदान अधिकारों (Voting Rights) से वंचित होने का खतरा है या अपनी समय-परीक्षित प्रक्रिया (Time-Tested Procedure) का पालन करे। शामिल करने का दृष्टिकोण पहले इस तर्क के अनुरूप था और ईसी ने अब जो अपनाया है वह एक नया दृष्टिकोण (New Approach) प्रतीत होता है जिसका उसने पहले न तो अनुमान लगाया था और न ही घोषित किया था।”
लवासा (Lavasa), जिन्हें 2018 में ईसी (EC) के रूप में नियुक्त किया गया था, ने 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) के कथित अभियान नियमों (Campaigning Rules) के उल्लंघन के मुद्दे पर कई असहमति वाले नोट्स (Dissenting Notes) दिए थे। उन्होंने अपने कॉलम (Column) में यह भी लिखा:
“पहले नामांकित मतदाताओं का क्या होगा, जिन्हें ईपीआईसी (EPIC – Electoral Photo ID Card) जारी किया गया था, लेकिन अब दस्तावेजों का उत्पादन करने में उनकी अक्षमता के कारण उन्हें बाहर कर दिया गया है? क्या सरकार उनके मामलों को अपने हाथ में लेगी या न्यायपालिका?” यह मुद्दा मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) के संरक्षण और निष्पक्ष चुनाव (Fair Elections) सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका की भूमिका (Role of Judiciary) पर प्रकाश डालता है।